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एक बरगद उग आया है भीतर / ज्योति रीता
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इन दिनों
एक बरगद उग आया है भीतर
गहरी जड़े लिए
तन कर खड़ा
फैला रहा छाँव
तले जिसके सुकून है बहुत
मरुस्थल में किसी हरे-भरे द्वीप सा
भटके पंछी सी मैं
उसके पीठ पर सुस्ता रही हूँ
कुछ देर से
हाँलाकि
नक्शे पर वह बरगद कहीं नहीं है
पर नक़्शे पर
मरुस्थल हमेशा से रहा॥