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सृष्टिकार / आरती 'लोकेश'

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सृष्टि का प्रारंभ तू
प्राकृत सुषमा का दंभ तू
तू ही सृष्टा तू ही दृष्टा
तू ही आदि अंत तू।

वेद का आह्वान तू
आदिग्रंथ पुराण तू
ज्ञान तू गीता का
ब्रह्मांड का परिमाण तू।

जड़-चेतन में तू प्रचंड
भुवनेश्वर सम मार्तंड
अखिलेश्वर की स्वामिनी
अंतरिक्ष की शक्ति अखंड।

भक्ति का संदेश तू
गतिमय स्थिर वेश तू
धरा तू गगन तू ही
एकत्र विभक्त हर देश तू।

परिकल्पना की राह तू
अपूर्णता की आह तू
कर्मरत की तू साध
सम्पूर्णता की चाह तू।

तू प्रथम स्वर उल्लास का
तू प्रमाण उच्छ्वास का
तू साक्षी हर वचन में
राम के वनवास का।

प्रबुद्ध तू मूढ़ तू
प्रस्तुत रहस्य गूढ़ तू
गिरि शृंग सी उत्तिष्ठ
भव सिंहासनारूढ़ तू।

कर्म की ज्यौनार तू
प्राण का व्यापार तू
विरक्तियुक्त इस जगत में
रागमय संचार तू।

प्रेयसी की प्रीत तू
प्रीत की हर रीत तू
अनुभूति की प्रेरणा
श्वास का संगीत तू।

जागृति की तू अलख
गरिमा की नव झलक
उत्थान की तू रागिनी
स्वप्न तू हर पलक।

दृष्टि के पार तू
श्रावण की धार तू
कण-कण की निर्मिति में
रूप तू आकार तू।