मंज़िल तक का सफर / आरती 'लोकेश'
मंज़िलों की धुन में मैं, बस हर कदम बढ़ता रहा,
सफर की रूमानियत मैं, नज़रअंदाज़ करता रहा।
वक्त के घोड़े पर सवार, सरपट दौड़ता ही रहा,
हवाओं के पंख पहन, हवा में उड़ता ही रहा।
आगे सबसे पहुँच मैं, मंज़िल फ़तह करता रहा,
हरेक साथी छुट गया, मैं फासले नपता रहा।
मंज़िलों की धुन में मैं, हर कदम बढ़ता रहा।
वादियाँ थीं और घटा, मुझे पुकारतीं ही रहीं,
कुदरत की अनुपम छटा, मुझे रिझाती ही रहीं।
वीराने में एकांत में, हर शोर शब्द टलता रहा,
लुभाव से मुँह मोड़ मैं, नाक उठा चलता रहा।
मंज़िलों की धुन में मैं, हर कदम बढ़ता रहा।
एक पत्र छाँह की भी, माँग मत बोला यह था,
एक पत्र छाया सिर पर, भार भी तोला न था।
पत्र-पत्र सब झड़ गए मैं, ठूँठ-ठूँठ तकता रहा,
हरियाली सिमट गई मैं, बंजर में भटकता रहा।
मंज़िलों की धुन में मैं, हर कदम बढ़ता रहा।
पूर्व-पश्चिम-उत्तर-दक्षिण, मेरी दिशा मेरी मंज़िल,
क्षितिज में रवि डूबा, या लहरें टकराईं साहिल।
कदम ताल मिला योजना, मैं अमल करता रहा,
कामयाबी चाहत में मैं, कुछ टूटकर झड़ता रहा।
मंज़िलों की धुन में मैं, बस हर कदम बढ़ता रहा।
अनमोल इन लम्हों का, मोल परखते रहना तुम,
रसीला जीवन सफर, जीभर रस चख लेना तुम।
बेस्वाद जीवन हुआ मैं, उमंग-ए-दिल रिसता रहा,
मंज़िल का उल्लास नदारद, तीर सा चुभता रहा।
मंज़िलों की धुन में मैं, बस हर कदम बढ़ता रहा।