शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ / परिचय
जन्म
हिंदी साहित्य में प्रगतिशील लेखन के अग्रणी कवि शिवमंगल सिंह सुमन का जन्म 5 अगस्त 1915 को उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले में हुआ था।
कर्मक्षेत्र
डा. सुमन का कर्मक्षेत्र अधिकांशत: शिक्षा जगत से संबद्ध रहा। वे ग्वालियर के विक्टोरिया कॉलेज में हिंदी के व्याख्याता, माधव महाविद्यालय उज्जौन के प्राचार्य और फिर कुलपति रहे। अध्यापन के अतिरिक्त विभिन्न महत्वपूर्ण संस्थाओं और प्रतिष्ठानों से जुड़कर उन्होंने हिंदी साहित्य में श्रीवृद्धि की। सुमन जी प्रिय अध्यापक, कुशल प्रशासक, प्रखर चिंतक और विचारक भी थे। वे साहित्य को बोझ नहीं बनाते, अपनी सहजता में गंभीरता को छिपाए रखते। वह साहित्य प्रेमियों में ही नहीं अपितु सामान्य लोगों में भी बहुत लोकप्रिय थे। शहर में किसी अज्ञात-अजनबी व्यक्ति को रिक्शे वाले को यह बताना काफी था कि उसे सुमन जी के घर जाना है। रिक्शा वाला बिना किसी पूछताछ किए आगंतुक को उनके घर तक छोड़ आता। एक बार वह सुमन कानपुर के एक महाविद्यालय के कार्यक्रम में आए। कार्यक्रम की समाप्ति पर कुछ पत्रकारों ने उन्हे घेर लिया। आयोजकों में से किसी ने कहा सुमन जी थके है। इस पर सुमन जी तपाक् से बोल, नहीं मैं थका नहीं हूं। पत्रकार तत्कालिक साहित्य के निर्माता है। उनसे दो चार पल बात करना अच्छा लगता है।
डा. शिवमंगल सिंह सुमन के जीवन का सबसे महत्वपूर्ण क्षण वह था जब उनकी आंखों पर पट्टी बांधकर उन्हे एक अज्ञात स्थान पर ले जाया गया। जब आंख की पट्टी खोली गई तो वह हतप्रभ थे। उनके समक्ष स्वतंत्रता संग्राम के महायोद्धा चंद्रशेखर आजाद खड़े थे। आजाद ने उनसे प्रश्न किया था, क्या यह रिवाल्वर दिल्ली ले जा सकते हो। सुमन जी ने बेहिचक प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। आजादी के दीवानों के लिए काम करने के आरोप में उनके विरुद्ध वारंट जारी हुआ। सरल स्वभाव के सुमन जी सदैव अपने प्रशंसकों से कहा करते थे, मैं विद्वान नहीं बन पाया। विद्वता की देहरी भर छू पाया हूं। प्राध्यापक होने के साथ प्रशासनिक कार्यो के दबाव ने मुझे विद्वान बनने से रोक दिया। प्रगतिवादी कविता के स्तंभ डा. शिवमंगल सिंह सुमन लोकप्रियता के शिखर पर पहुंचने के बाद 27 नवंबर 2002 को चिरनिद्रा में लीन हो गए।