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छोड़ चलें कदमों के निशाँ / आरती 'लोकेश'

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स्वदेश धरा से आए दूर,
काम-नाम से हो मजबूर,
इस धरा ने अतुलित किया,
हमारा स्वागत है भरपूर।

परंपरा कहती है हमारी,
अब आई हमारी है बारी,
इस की सुगंध में हम भर दें,
अपनी संस्कृति की फुलवारी।

एकता की पावन सरिता में,
सराबोर हुए हैं तन-मन-जाँ,
विह्वल उर श्रद्धामयी यहाँ,
‘छोड़ चलें कदमों के निशाँ’।

खुशकिस्मत हैं तुम और हम,
स्वतंत्र देश में लिया जनम,
उन्नत मस्तक, विशाल हृदय,
स्वतंत्रता को रखें अक्षुण्ण।

अब है यही लक्ष्य हमारा,
करते शपथ, खाते हैं कसम,
प्रगति का फहराने परचम,
उठे अब हर अपना कदम।

‘छोड़ चलें कदमों के निशाँ’
स्व देश के दूत हम हैं जवाँ,
विदेश में जाएँ जहाँ-जहाँ,
निज गौरव फैलाएँ वहाँ-वहाँ।

छोटे पैरों से विशाल कदम,
थिरकन से झूम उठे गगन,
होठों से झरते सुर संगीत,
तरल कर देगा जब नयन।

हम बस निश्छल कर्म करें,
तन-मन से प्रण-जीवन से,
अहम्, अभिमान हो समर्पण,
‘छोड़ चलें कदमों के निशाँ’।