श्वेत वैधव्य / आरती 'लोकेश'
इंद्रधनुषी रंग सुहाते किंतु, श्वेत रंग है सबसे उज्ज्वल,
चंद्र निशांक देख मुसकाए, अंग लगा वारिद धवल।
चाँदनी ठहर गई श्वेत रज, कण पर अपना रूप बदल,
मदमस्त बयार चली तो खिल, उठे नरगिसी पत्रदल।
सब रंगों की अनुपस्थिति हो, तो कहलाता है रंग श्याम
सब रंगों का कर आलिंगन, खिल उठता श्वेत का धाम॥
शुभ्र नयन मुक्तावली दंत, और लावण्यमयी गौर वदन,
अतुलित सौन्दर्य स्वामिनी, यौवन सित भरपूर बदन।
स्वच्छ आवरण उसके तन, श्वेत वर्ण उसका वसन,
स्याह सफेद जीवन का पृष्ठ, शुद्ध अपंक था उसका मन।
रंग-बिरंगे रंगों का न था, उसके जीवन में कोई काम,
सब रंगों का कर आलिंगन, खिल उठता श्वेत का धाम।।
हरित सुषमा वन तरु-पादप, कुश लताएँ पल्लव पर्ण,
नीलवर्ण सिंधुजल सज्जित, नभ प्रकाश रश्मि विकर्ण।
रक्तिम कमल पाटल गुड़हल, सुर्ख दिशाओं के नव कर्ण,
पीताभ दिनकर गिरि पुखराज, मृदांग सोहे चंदन वर्ण।
भिन्न-भिन्न है शोभा न्यारी, रंगों छिड़का दृश्य अभिराम
सब रंगों का कर आलिंगन, खिल उठता श्वेत का धाम॥
रंग गुलाल वह दूर से पूजे, रंग सिंदूर दिखे हो विह्वल,
मेंहदी आलते की नहीं आज्ञा, माथ बिंदी भी रहे विकल।
आभूषण शृंगार भी तज दिया, मन को ऐसा हत अविचल,
विवाहोत्सव हो जन्मोत्सव वह, दूर से ताके मात्र पटल।
किसने फिर दे दिया वैधव्य, शांत श्वेत परिधान का नाम,
कफ़न का यह रंग पहनकर, कैसे खिलता श्वेत का धाम॥