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धन की माया / आरती 'लोकेश'

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जिस हृदय में दीप प्रीत था
जाने कब क्रोध का तम गहराया,
बसा जहाँ केवल मनमीत था
किसने नफ़रत का बीज दबाया।
आती-जाती साँसों का गीत था
लोभ, डर-भय अब वहाँ समाया,
आधी रोटी भी खाकर खुश थे
अन्यों का हक खा न डकराया।

धन ही था जो कम ही था
भले कोष रिक्त पड़े थे सारे,
अंतर निधि सत् परिपूर्ण था
अब मानवता फिरती मारे-मारे।
विनम्र वेश था, सभ्याचार था
दंभ-गर्व-प्रपंच अब दिखे सहारे
दौलत ने अपना घर बनाया
घरवाले अपने कर दिए किनारे।

एक मनुज को एक ही कोष
सीमित प्रभु ने स्थान दिलाया,
या तो रख लो सद्विचार का तोष
या भर लो धन के साथियों की माया।
दया-दान धर्म सब प्रतीत था
धूर्त दिखें सब, औ’ कृपण बनाया,
कीमत बड़ी चुकाकर के ही
धन-अर्थ-वित्त अमीर कहलाया।