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कल्पना / आरती 'लोकेश'

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मेरी कल्पना की धरा पर, छाए तुम गगन बनकर,
मेरी सोच के आँगन यूँ, मुस्काए चमन बनकर,
विचार करुँ अस्तित्व तो, महकाए सुमन बनकर,
पलकें मूँद लूँ पल में, तुम लहराए सपन बनकर।

टटोल रही अँधेरे में, दिख जाओ किरण बनकर,
फेंक दिए दिल के पासे, बिछ जाओ पण बनकर,
पीछे भागूँ जिस पल के, मिल जाओ क्षण बनकर,
महल छोड़ रहूँ कुटिया, जुड़ जाओ तृण बनकर।

प्रीत की सूखी रोटी पर, फिसल जाओ घृत बनकर,
नई प्रेम की रीत लिखूँ, तुम रच जाओ कृत बनकर,
पूजूँ कि मैं उपवास करूँ, तुम देखो पुण्य व्रत बनकर,
जीवन में रस घोलूँ मैं, तुम घुल जाओ अमृत बनकर।