भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बहनें / लेबोगैंग मशीले / श्रीविलास सिंह

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 01:54, 30 दिसम्बर 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=लेबोगैंग मशीले |अनुवादक=श्रीविल...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैं देखती हूँ अनंतकालों की बुद्धिमत्ताप्रशस्त जांघों में धता बताती सजावटी वस्तुओं के रूप में अपनी उपस्थिति कोमेरी बहनों के मंदिरों के लिएसाँस लेती हैं प्राचीन आत्माएं चॉकलेट के गाढ़ेपन की सुख-सुविधा में इससे दम घुटता हैं अफ्रीका के फरिश्तों का जो नाचते हैं ताल परब्रह्माण्ड की कोख की यद्यपि वे नहीं कर पाते अनुभूति इसकी उत्पत्ति की अपनी शिराओं में। मैं हूँ सौभाग्यशाली कि मुझे किया जाता है प्रेमअपनी ही त्वचा के मंदिर में मेरा अंतरंग चूमता है सूरज को दिव्य सद्भाव से उस मलिनता से मुक्तजो नहीं जानती इसे ईश्वर जैसा। किंतु उत्पीड़न के पुत्रों ने दी नहीं कभी रोटियां बहनों को बुझाने को उनके पेट की बुभुक्षु अग्नि न ही सिखाया उन्होंने करना उन्हें आत्मा की संतुष्टि।इसलिए मैं प्रार्थना करती हूँ उन आवाज़ों से जो फुसफुसाती हैं मेरे कोमल सौंदर्य में मेरे वंश की शेरनियों के लिए सुनने को शांत सरपत के गीत। महसूस करने को परिवर्तन के रक्त का हरित स्पंदन अपने स्तनों में और जानने को शिशु पालन के मौन में स्वतंत्रता का प्रेमालिंगनजहाँ उनके चमचमाते आबनूस के शरीर हैं प्रतिबिम्ब उनकी आत्माओं के।