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याद बन-बनकर गगन पर / रमानाथ अवस्थी

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याद बन-बनकर गगन पर

सांवले घन छा गए हैं


ये किसी के प्यार का संदेश लाए

या किसी के अश्रु ही परदेश आए।

श्याम अंतर में गला शीशा दबाए

उठ वियोगिनी देख घर मेहमान आए।

धूल धोने पांव की

सागर गगन पर आ गए हैं


रात ने इनको गले में डालना चाहा

प्यास ने मिटकर इन्हीं को पालना चाहा

बूंद पीकर डालियां पत्ते नए लायीं

और बनकर फूल कलियां खूब मुस्काईं

प्रीति रथ पर गीत चढ़ कर

रास्ता भरमा गए हैं


श्याम तन में श्याम परियों को लपेटे

घूमते हैं सिंधु का जीवन समेटे

यह किसी जलते हृदय की साधना है

दूरवाले को नयन से बांधना है


रूप के राजा किसी के

रूप से शरमा गए हैं ।