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जीवन -तरु / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

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31
स्नेह सुरभि
बिखरे दिग्दिगन्त
पवन पंख।
32
साँसों की डोर
तेरे ही हाथों थमे
दोनों ही छोर।
33
मुट्ठी में बचे
जो भी दो चार पल
अर्पित उसे।
34
कर्म का लेखा
लिखता है नियन्ता
जग न लिखे।
35
प्रपञ्च बोए
जब उगी फसल
फिर क्यों रोए?
36
अश्वत्थ तुम
बने हो प्राणवायु,
दुर्दिन छाए।
37
ईर्ष्या अनल
कब बुझाए बुझी
थके सागर
38
ढलता सूर्य
सब पाखी उड़े हैं
नीड़ की ओर।
39
जीवन -तरु
डाल पर बसेरा
प्राण तुझी में।
40
थे शिलाखण्ड
स्पर्श पाकर हुईं
प्राण प्रतिष्ठा
41
रचे सिक्त हो
प्राण रस मधुर
शब्द ब्रह्म से।
42
शब्द में अर्थ
इस तरह बसें
ज्यों तन प्राण।
43
शब्द जीवन्त
अर्थ सुगन्ध सिक्त
हुई हवाएँ।
44
सदा हों साथ
स्नेहसिक्त सुधियाँ
मेरी निधियाँ।