भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तेरी वो रुलाई / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

Kavita Kosh से
वीरबाला (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 09:04, 5 जनवरी 2021 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' }} {{KKCatKavita...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

चीरकरके हिमशिखर को
बींधकरके मर्म मेरा
दहला गई करुणा भरी
मुझे तेरी वो रुलाई।

कुटिल समय समझता नहीं
अनुराग की भाषा कभी
लोग पढ़ते ही कहाँ , कब
लिपि जो मर्म पर लिखी ।
भटके शिशु की सिसकी-सी
याद तेरी रोज़ आई ।

ये वक़्त कोरोना हुआ
संक्रमित सम्बन्ध सारे
लिखते रहे कपटी सखा
छल-भरे अनुबन्ध सारे ।
अपराध की सारी कथाएँ
सदैव उनके मन भाई ।