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अन्नदाता / शीतल साहू

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मैं हूँ "अन्नदाता"
सदियों से इस धरा के सीने पर
हाड़ तोड़ मेहनत कर
अन्न के दाने उपजाता
दुनिया की भूख मिटाता।

सदियों से यही करता आ रहा हुं
दिन-रात जी तोड़ मेहनत मैं करता रहा हुं
फिर भी भूख, गरीबी, शोषण, कर्ज़ भोगता रहा हुं।

सभी की मैं भूख मिटाता
पर मैं ख़ुद कई राते भूखे पेट सोता
अन्न की एक दाने के लिये जी जान लगाता
पर इस मेहनत का पूरा फल मुझे नहीं मिल पाता।

हड्डी मेरी टूटती
दूध मैं उपजाता
मथनी से उसको मैं मथता
पर मुझे सुखी रोटी ही नसीब होती
मेरी दूध का मक्खन, घी कोई और ले लेता।

मैं अब भी वही हुँ
जहाँ सदियों से जहाँ खड़ा था
बेबस, मजबूर और लाचार।

ये बेबसी और बढ़ती जा रही
शोषण अत्याचार बढ़ता जा रहा
प्रकृति और भी रूठी जा रही
कर्ज के तले मैं दबा जा रहा।

थोड़ी बहुत मन में थी जो एहसास
ये धरा की टुकड़ा तो है मेरे पास
पुरखो की पहचान और थाती है मेरे हाथ
पर लोगों की गिद्ध दृष्टि इस पर भी है।

वो तमाम शोषण, कर्ज, पीड़ा क्या कम थे
जो अब मुझे मेरी ज़मीन से भी हटा रहे
हमारी पुरखो की थाती लूट रहे
मेरी जीवन का आधार भी छीन रहे।

क्या, अब मैं जीऊँ भी ना
क्या मैं इतना निकृष्ट हो गया हूँ
क्या केवल आत्महत्या की राह है बची
क्या मैं अन्नदाता,
अन्न के एक-एक दाने के लिए भी मोहताज हो जाऊँ?