भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मुर्गी कुड़कुड़ाई है / शलभ श्रीराम सिंह

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:24, 19 जनवरी 2021 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मुर्गी कुड़कुड़ाई है
सहेली मुर्गी से अपने जोड़े का चर्चा कर रही है शायद
शायद मन पसन्द बाँके मुर्गे के लिए कोई पैगाम दे रही है वह
या फिर
आदमियों की दुनिया में
बचे रहने की किसी कोशिश पर
मशविरा कर रही है भरोसेमन्द सखी के साथ
कि प्लेट में मसाले की ख़ुशबू का हिस्सा बनना
अशुभ है मुर्गों के लिए
अशुभ है नाश्ते में मुर्गियों के अण्डों का शामिल किया जाना

मुर्गी कुड़कड़ाई है
बिल्ली या बाज के कहीं बिलकुल पास होने का
संकेत है यह
नेवला भी हो सकता है वहाँ
साँप भी
दोनों साथ-साथ नहीं होंगे वहाँ
मुर्गी की आवाज़ के दायरे में
वहाँ केवल भय है
सतर्क भय केवल
अपनी बिरादरी और बच्चों को सावधान करता

मुर्गी कुड़कुड़ाई है
दाने छिड़के जा रहे हैं आस-पास
चूजों को तालीम देने का वक़्त है यह मुर्गी के लिए
ज़िन्दगी और अनाज के सरोकार पर कुछ बोल रही है वह
मुर्गे के लिए हिदायत भी हो सकती है उसमें
कि चूजों का हिस्सा न खाए वह

रचनाकाल : 1991 विदिशा


शलभ श्रीराम सिंह की यह रचना उनकी निजी डायरी से कविता कोश को चित्रकार और हिन्दी के कवि कुँअर रवीन्द्र के सहयोग से प्राप्त हुई। शलभ जी मृत्यु से पहले अपनी डायरियाँ और रचनाएँ उन्हें सौंप गए थे।