भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
हार हुई तो / रामकुमार कृषक
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:09, 21 जनवरी 2021 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रामकुमार कृषक |अनुवादक= |संग्रह= }} {...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
हार हुई तो
प्रश्नों के सम्बोधन
उग आए
पराजित उत्तर बिसुराए !
दाएँ - बाएँ हाथ हो गए
आएँ - बाएँ पैर
कुछ ऐसे दिन लगे
कि अपने / अपने रहे न गैर,
यों टूटा आकाश
धरा के आँसू ढुर आए !
शंका - शंका बेंत हो गई
नंगी - नंगी पीठ
कुछ ऐसा बुन लिया
कथानक / पात्र हुए सब ढीठ ,
यों बैठा खग्रास
त्रास के परचम फहराए !