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वसंती हवा / अनिल कुमार झा

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रूके रूके गे तोहें वसंती हवा
बात हमरो ज़रा सुन मानी तेॅ लेॅ,
कन्ने भटकै छें भागै छें हमरा कहें
हम्में तोरे रं छी यहोॅ जानी तेॅ लेॅ।

की मिलै छौ तोरा कहें पाबै की छें
काम कोनोॅ कहाँ तोंय करै छै कहें,
बस यहा शौख तोरो की तोहें बहें
कोय मिलेॅ नै मिलेॅ तोहें बहते रहें।
ठहर एक पहर लेॅ ज़रा सांस लेॅ
ई दुनियाँ छै कैन्हों ई ध्यानी तेॅ लेॅ।

हाय, चललोॅ छें तोेहें कहाँ दूर से
आरो जाना छौ केकरा लुग ई तेॅ बता,
की राखने छें साथें कलौऔ तोहें,
की राखने छें साथोॅ में ओकरोॅ पता
ई धड़फड़ करै छै फड़फड़ बड़ी
सुस्तावें ज़रा रूक पानी तेॅ लेॅ।

खाली तोरे वसंत नै होतोॅ कभी
ई गुमानो न राखिहें जौं टूटी गेलोॅ,
नै कानै ले पारबे, नै हाँसें सोचे
नै बूझै में ऐत्तो की-की भेलोॅ?
प्यार मनुहार सौगत लेने चलें
सुगंधी सभै रो तोंय छानी तेॅ लेॅ।