भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सजनी शरद पहुना / अनिल कुमार झा
Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:23, 22 जनवरी 2021 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अनिल कुमार झा |अनुवादक= |संग्रह=ऋत...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
खाड़ोॅ होलै आबी दुआरी सजनी शरद पहुना,
आबोॅ आबोॅ अंदर आबोॅ देर लागल्हौं कहिना।
जब से होलै बरखा रानी भींजी तीती रूसने
हवा भी तेॅ ज़ोर लगैने कानै लोरे भींजने,
कत्तो बौसै ले जे चैल्होॅ बात बनै न बहिना
खाड़ोॅ होलै आबी दुआरी सजनी शरद पहुना।
जानै छी एकरा ऐत्ते मोॅन रो गैतै रोगे रोग
जेकरा चाहे जे भी कहोॅ, लागतै सच्चे जोगे जोग,
एकरोॅ सबटा बात समेटलोॅ रहतै जैन्होॅ तहिना
खाड़ोॅ होलै आबी दुआरी सजनी शरद पहुना।
कखनूँ जाय के कोन्टा खाड़ोॅ, देखै छै टकटकी लगाय
कखनूँ भौजी से बतियाबै, मरलोॅ मन केॅ देलक जराय,
आबेॅ ते बस हंस चलै मन व्याकुल मन में जहिना
खाड़ोॅ होलै आबी दुआरी सजनी शरद पहुना।