भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

काला राक्षस-18 / तुषार धवल

Kavita Kosh से
Lina jain (चर्चा) द्वारा परिवर्तित 20:53, 8 अक्टूबर 2008 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=तुषार धवल }} काले राक्षस देखो, तुम्हारे मुँह पर ...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

काले राक्षस


देखो, तुम्हारे मुँह पर जो मक्खियों-से भिनभिनाते हैं

हमारे सपने हैं

वो जो पिटा हुआ आदमी अभी गिरा पड़ा है

वही खडा होकर पुकारेगा बिखरी हुई भीड़ को

आस्था के जंगल उजड़ते नहीं हैं


काले राक्षस


देखो, तुमने बम फोड़ा और

लाश तौलने बैठ गए तुम

कबाड़ी !

जहाँ-जहाँ तुम मारते हो हमें

हम वहीं-वहीं फिर उग आते हैं


देखो

मौत का तांडव कैसे थम जाता है

जब छटपटाए हाथों को


हाथ पुकार लेते हैं


तुम्हारे बावजूद

कहीं न कहीं है एक आदमी

जो ढूंढ ही लेता है आदमी !


काले राक्षस !

घर्र-घर्र घूमता है पहिया