जुड़े हुए हाथों,
बन्द आँखों और
पीड़ा के पारदर्शी आवरण से
आवृत चेहरों से
की जाने वाली
असंख्य प्रार्थनाएँ
कहाँ खो जाती हैं ।
नहीं आती उनकी
थरथराती
प्रतिध्वनि भी पलटकर
अन्धेरों के जंगल से,
अन्धेरा जो पसरा है
दियों के पीले घेरो के उस पार ।
कोई देता नहीं सान्त्वना
निराशा में डूबते हृदयों को
नहीं कोई आश्वासन
दुखों से मुक्ति का,
डूब जाती हैं
श्रद्धा की सारी पुकारें
किसी तलहीन कुएँ की
अन्धी गहराइयों में ।
सुना है
की गई थी असंख्य प्रार्थनाएँ
जिन देवताओं से
वे अभी व्यस्त हैं स्वयं
प्रार्थना में
किसी और देवता की,
अपने-अपने सिंहासनों की सुरक्षा हेतु ।