भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
घूम रही हूँ / वन्दना टेटे
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:54, 2 फ़रवरी 2021 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=वन्दना टेटे |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCat...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
घूम रही हूँ
दउरा में केउन्द लिए
पीठ पर तुमको बेतराए
बिरसा ही नाम तो है
सब जानते हैं
सरकार भी
पर लोग तुमको समाधि में
खोजते हैं
मेरे दउरा और पीठ को
देखते भी नहीं
सज-सँवर कर लोग टीभी पर
बोलते हैं तुम्हारे बारे में
मैं सिर्फ़ अपनी पीठ पर
भूख से अकुलाए बच्चे को सुनती हूँ
सब जानते हैं
बिरसा ही नाम तो है
बेचती हूँ हंड़िया
जब जंगल के दिकू बाबू लोग
महुआ, केउन्द, जामुन नहीं चुनने देते
तब खेलते रहता है
प्लास्टिक की बोतल से
पीने वाले भी उसको नहीं देखते
जैसे नहीं देखते भाषण देने वाले
पर सब जानते हैं
बिरसा ही नाम तो है
जानती हूँ ये भी मरेगा
लड़ते हुए भूख से
या सरकार से
बिरसा ही नाम तो है