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बचपन की शक्ल / अनिता मंडा

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एक औरत थी बहुत सारे पेड़ों की माँ
जब भी बारिश होती
बीज बोने निकल जाती झुकी हुई कमर से
मरुभूमि पर हरियाली का कसीदा बुनने का
हुनर आता था उसे

उन पेड़ों की छाँव
सुकून के धागों से बनी चादर सी बिछती
अल सुबह चिड़ियाँ उन पर दुआ के गीत गातीं
उसकी सींची झाड़ियों के बेरों की मिठास की
आदी रही पूरे घर की ज़ुबान

एक औरत ने चरखे पर ऊन के फाए काते
तन सिहराती सर्द हवाओं को रोका
कोहरे वाली सुबह के बाद की
कुनमुनी धूप सी थी वो नरम मुलायम
चूल्हे पर सिकती रोटी की महक़ सी

एक और औरत के कन्धों पर बैठ
दुनिया को कुछ ऊँचाई से देखते हुए
इतराए हम
उसके दुलार की धारा में डूबते हुए
बहते हुए तैरते थे

एक दूसरी औरत ने
कठपुतली की तरह नाचने वाली गुड़ियों से
बाँधे रखा बालमन को
रंग-बिरंगे कपड़ों के बचे हुए टुकड़े
उसके हाथ लगने से
बेशकीमती खिलौने बन जाते
इंद्रधनुष को हम नाचता हुआ पाते
उसकी हँसी में

एक पुरुष इल्म की ज्योति से अंधकार मिटाता
हर पहाड़ा सफ़ेद धोती-कुर्ता पगड़ी धारण किये
एक सफ़ेद दाढ़ी-मूँछ वाले इंसान की शक्ल इख़्तियार कर लेता
दुनियावी जोड़-बाकी, गुणा-भाग से परे
अक्षरों की पूँजी बाँटी

एक और पुरुष रसगुल्ले के पर्याय से
घुले रहे बचपन के क़िस्सों में

बचपन जी शक्ल हू ब हू मिलती है
दादा-दादी नाना-नानी से.