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अग्रज कवि मंगलेश डबराल के लिए / विनोद विट्ठल

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(1)

तुम्हें पता है कितना अकेला और कमज़ोर होता है मरीज़ कोरोना की आईसीयू<ref>इण्टेंसिव केयर यूनिट यानी गहन चिकित्सा कक्ष</ref> में
तुम आईसीयू में होती तो जानते हुए मौत के ख़तरे को भी
मैं आता और लिपट कर तुम्हें चूम लेता

अर्थव्यवस्था ही नहीं
प्रेम भी नष्ट हुआ है कोरोना में
फुसफुसा रहे थे मंगलेश

(2)

साल, महीना और सर्दियाँ एक ही थी
बीमारी का नाम भी एक ही था

न आप बोल पा रहे थे और न ही मैं

इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक में दो कवि
ऑक्सिजन मास्क पर अँगुलियाँ नचाते एक दूसरे को मैसेजिंग कर रहे थे
जो किसी ने नहीं देखा

हम दोनों ने एक-दूसरे से कहा था — हम जीतेंगे साथी
और उधर, एक कवि को ऊपर लाया जाय सुनते ही
आप रवाना हो गए और पीछे छोड़ गए असद ज़ैदी की वाल पर एक सन्देश
— मंगलेश इज़ गोन<ref>मंगलेश का देहान्त हो गया</ref> ।

मैं नाख़ुश हूँ आपकी इस रवानगी से
आपके हिस्से की कविताएँ
उन कविताओं के पहाड़
उन कविताओं का राग
उन कविताओं का सम्पादन
अब मैं कैसे पूरा करूँगा ?

न आप सिगरेट की डिब्बी देकर गए और न ही पेन
इधर दुनिया का एक मुहावरा झूठा कर गए कि कौन क्या साथ ले जा पाता है !

कुछ मौसम, कुछ नमियाँ, कुछ सिगरेटें, कुछ काग़ज़, कुछ पेन धरती से ग़ायब हैं
और कुछ संगतकार बिना गायक के गाते हुए रो रहे हैं कि उन पर अब कोई कविता नहीं लिखेगा !

(3)

आपके चश्मे से मैंने जाना था —
कवि के पास एक अलग चश्मा होता है जिससे वो देख लेता है गहनों से लकदक
और चमकती-दमकती औरत का दुख
धर्म के लोबान से आती सड़ान्ध
बराबर दिखती दुनियावी चीज़ों में ग़ैरबराबरी
आती हुई तानाशाही
विज्ञापनों के नियोन बोर्ड के पीछे का अन्धेरा
और ट्रांसफ़र के लिए अपनी असमत देकर मुस्कुराती लौटती एक अध्यापिका का दुख

कवि का चश्मा केवल देखता ही नहीं है
बेख़ौफ़ बोलता भी है

शब्दार्थ
<references/>