भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दंगा / श्रीविलास सिंह

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:49, 4 फ़रवरी 2021 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=श्रीविलास सिंह |अनुवादक= |संग्रह= }...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

न जाने कब
गरमा उठती है पुरवैया,
धुप की मखमली उजास
न जाने कब
बदल जाती है
आग की पगडंडी में
उबलने लगती है नदी
पिघल कर बह उठते है किनारे
उत्तप्त हो लावा की तरह।
लहू की एक अग्निरेखा
प्रवेश कर जाती है
आत्मा की गहराइयों तक।

और तब जब
सारा उन्माद थम जाता है
बदल जाता है बदबूदार कीचड़ में।
नरमुंडों के ढेर पर बैठे हम
गिन रहे होते है लाशें
पीट रहे होते हैं छातियाँ।
पर
मार-काट का सारा शोर
थम जाने के बाद भी
थर्रा रहे कान के परदों पर
हथेलियाँ रख लेने से
नहीं थमता
भीतर का कोलाहल,
मात्र संवेदना के आसुओं से
नहीं मिटता अंतर्दाह।
तलवारों पर से
रक्त पोंछ लेने भर से
नहीं भर जाते
छाती के घाव।