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सड़कें कहीं नहीं जातीं / श्रीविलास सिंह

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सड़कें कहीं नहीं जाती
वे बस करती हैं
दूरियों के बीच
सेतु का काम,
दो बिंदुओं को जोड़ती
रेखाओं की तरह,
फिर भी
वे पहुँचा देती हैं
हमारे सुख दुःख
हमारी चिंताएँ,
प्रेम और घृणा,
रोज़गार और दिहाड़ी
गाँव से शहर तक
और एक शहर से
दूसरे शहर तक।

वे होती हैं जर्जर भी
हमारी इच्छाओं, आकांक्षाओं का
बोझ ढोते ढोते
पर उफ तक नहीं करतीं।
सड़कों के सीनों में
दफ़न हैं किस्से
दुनियाँ जीत लेने के
स्खलित अभियानों से लेकर
रक्त और लाशों से पटे
भीषण पालयनों तक के
जब भाग रहे थे आदमी
आदमी से डर कर।

मैंने सुना है
रोती हैं सड़कें रात को
जब थम जाता है
दिन भर की
भागदौड़ का कोलाहल,
और सुबह
भीगी हुई मिलती है
किनारे की घास।
आखिर गुज़रे भी तो हैं
लुटेरों के
सारे कारवाँ
इन्ही सड़कों की
छातियों को रौंदते हुए,
और पहुँची हैं तमाम शव यात्राएँ
स्वजनों की
मरघट तक
इन्ही सड़कों के कंधों पर।