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अरे पार्टनर ! / पंकज परिमल

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अरे पार्टनर !
जिसकी-तिसकी
करता क्यों तू
बटरिंग अक्सर।

अरे पार्टनर !!
अपनी सारी ऊर्जा क्यों तू
करता अब व्यय उनकी ख़ातिर ।
बाहर से वे नित मुसकाकर
तेरी सब बातें पूछेंगे ।
या गालों तक अश्रु बहाकर
लोक दिखव्वे को रो देंगे ।।
अपने मन के भेद न देंगे,
हैं चालाक, चतुर, अति शातिर ।।

छप्पर-फाड़ वचन तो देंगे,
कभी भाग बिल्ली के टूटा
क्या तूने देखा है छींका,
टूटेगा क्या उनका छप्पर ?
अरे पार्टनर !!

सबकी सुन पर भीतर कुछ गुन
कहे-सुने से रहकर निःस्पृह ।
बस, बातों के ही हल्ले हैं
कहने में क्या घिसीं ज़ुबानें ।
मधुर वचन ये रसगुल्ले हैं
जो खाएँ, बस, वे ही जानें ।।
सभी घोषणापत्रों की तू
बक्से में रख लगा बड़ी तह ।।

प्रतिक्रिया क्यों करता अपनी,
कह लेने दे, जो कहता वह,
उसकी बातों के नश्तर सह ।
क्यूँ थकता हाँजी-हाँजी कर,
अरे पार्टनर !!

तेरे हाथ फैसला लिखना,
उसके हाथ दिया क्यों काग़ज़ ?
दे मत उसके हाथ छापकर
अपने अभिमत का अँगूठा ।
लिख अपना सौ-टंच फ़ैसला,
तेरा यह अधिकार अनूठा ।।
क्यों बनता वादी-प्रतिवादी
कम-से-कम तू ही इस क्षण जज ।

क्या महसूस करेगा दुख वह
जिसने तुझको कभी न पूछा ।
तुझको हर क्षण रखता छूँछा ।
जिसकी मूँछ मलाई से तर ।
अरे पार्टनर !!