Last modified on 28 फ़रवरी 2021, at 22:47

छापा है होटल में / पंकज परिमल

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:47, 28 फ़रवरी 2021 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=पंकज परिमल |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatNav...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

छापा है होटल में
छापे में सूरत नहीं
देह धरी जाती है ।

सूरत वाला
अच्छी-खासी इज़्ज़त वाला है ।
ऊपर से बेचारा
बीवी-बच्चों वाला है ।
धरी गई हर देह
पापिनी घोषित होती है ।
मुँह ढाँपे वो
समाचार का गर्म मसाला है ।।

सच निराकार रहता है
भाषा में सत्य नहीं
भ्रान्ति गढ़ी जाती है ।।

सीता से ज़्यादा
हुआ राम की इज़्ज़त का चूरा ।
रावण पहले से ही
अपयश का भागी है पूरा ।
खलनायक ने चाहे न
आँख-भर देखा ही होगा,
सबकी साझी सम्पत्ति हुई
उसको सबने घूरा ।।

इस अग्निपरीक्षा में
रावण नहीं,
सीय धरी जाती है ।।