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अपनी ही चाल चलाएँगे / पंकज परिमल

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हम दोषपूर्ण
दोषों को गुण साबित करके
इस दुनिया में
अपना इतिहास बनाएँगे
अपने पद और प्रतिष्ठा से
आतंकित कर
इस दुनिया को
अपनी ही चाल चलाएँगे

हम तो बैठे हैं
गुरुकुल की आसंदी पर
राजा भी गुरुकुल के आगे
होता नतशिर
जितने स्नातक हैं
देश-देश में व्याप्त आज
वे अपने आप्त वचन
दुहराते हैं फिर-फिर

हम तो गायक हैं
अष्टावक्री छंदों के
कविता को
अष्टावक्री रीति पढ़ाऍंगे

वह शोध, शोध क्या
जिस पर अपनी मुहर नहीं
वह गवेषणा ही क्या
न जिसे स्वीकारें हम
वह उत्तरीय क्या
जो हमने न उढ़ाया हो
वह भी क्या है वैदुष्य
जिसे न सत्कारें हम

हर काले कलुषित को
श्रीकृष्ण बनाकर हम
अपनी गीताओं के अध्याय सुनाएँगे

हम जगविख्यात
महापण्डित दशकंधर के
वंशज तो भले नहीं
लेकिन अनुयायी हैं
विषपायी होंगे
तो तुम होंगे मूर्ख पुरुष !
हम सोम उदर संचित हैं
आसवपायी हैं

हम धवलकेश हो
शुक्राचार्यों के वंशज
हर वृहस्पती को
खासी धूल चटाएँगे

हम राजाओं से पूजित
मुनियों से वंदित
हम नहुष
पालकी अपनी उठवाकर मानें
हैं वेद, पुराण, श्रुति, स्मृति जितने
जगती में
क्या तुमने मूर्ख मनुज !
सारे हैं पहचाने

इन सबमें अपनी कीर्ति
क्षेपकों-सी गुम्फित
इनके बल पर हम
अपनी हवा बनाएँगे

हम सर्जक
हम आलोचक
हम ही हैं व्याख्याता
हम व्यासपीठ पर
चमचम उत्तरीय धारे
अपने गुरुकुल के स्नातक
और स्नातकोत्तर
जगवंद्य
उधर तुम हो निरीह या बेचारे

वह प्रामाणिक
जिस पर हम सही करें अंकित
हम भूतकाल होकर भी
पूजे जाएँगे

क्या तुमने कभी पढ़े वे पोथे
विशद बहुत
जो हैं गवेषणापूर्ण और
हैं भी मुद्रित
क्या तुमने हे !
अखबारों के वे लेख पढ़े
जो मेरी अमल कीर्ति से
रहते आप्यायित

अब भ्रम में ज़्यादा रहो न
निरे मूर्ख सर्जक
सूर्योदय होगा
जब हम शंख बजाएँगे