भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मोती दान किए / पंकज परिमल
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:37, 28 फ़रवरी 2021 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=पंकज परिमल |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatNav...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
रोग, शोक, विपदा, भय, संकट
भेंटें आन हिये
हमने-तुमने, किसी जनम में
मोती दान किये
ऐसे सखा-सहोदर वाले
अब संबंध कहाँ
आज मिले, कल बिछुड़े, स्थायी
अब अनुबंध कहाँ
धन्यवाद, दुविधाओ ! तुमने
साथ निबाहा जो,
बिना द्वंद्व-दुविधा के हमने
पल भी कौन जिये
बासन अगर न रीते तो फिर
पुनः भरे कैसे
कुछ पहेलियाँ काले आखर
हमें लगे भैंसे
क्या सुननी, क्यों सुननी जग की,
उँगली कान दिये
ऋण में से भी धन के जैसी
ख़ुशबू आ जाती
घी पीकर अब किसे चुकाना
क्यों फाड़ें छाती
क़िस्त दिलाकर याद व्यर्थ क्यों
तुमने खून पिये