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गुप्त पत्र-खुला उत्तर / मोहन अम्बर

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तुमने व्यर्थ उलाहना भेजा, मैं ख़ुद ही लिखने वाला था,
जिस दिन मुझमें और दर्द में, थोड़ा भी व्यवहार निभेगा,
सच कहता हूँ उस दिन मेरा गीत तुम्हारी याद लिखेगा।
अभी मजूरी से लौटा हूँ काव्य प्रशंसा पत्र पड़े हैं,
पर पत्नी के निर्मल दृग में, अर्थों के सौ प्रश्न खड़े हैं,
देख जिन्हें मैं चिन्ताओं की काल कोठरी से लिखता हूँ,
जिस दिन मेरा कर्म हाट में सच्चाई के हाथ बिकेगा,
सच कहता हूँ उस दिन मेरा गीत तुम्हारी याद लिखेगा।
अपना प्यार अगर आँके तो हल्का बैठे स्वर्ग राज भी,
पर मेरी माँ के सिर को तो बोझे का आभास आज भी,
जिसने मेरे खातिर घर-घर बदली बनकर नीर भरा था,
जिस दिन उसका दुखता माथा दीवारों से नहीं टिकेगा,
सच कहता हूँ उस दिन मेरा गीत तुम्हारी याद लिखेगा।
ठीक तुम्हारे जैसा ही मुँह है मेरी छोटी लड़की का,
किन्तु अभावों की बेटी तो इच्छाएँ खाने से फीका,
शेष बड़े उन दो बच्चों का चित्र बताना नहीं ज़रूरी,
पर हाँ जिस दिन उन लोगों को दूध स्वप्न में नहीं दिखेगा,
सच कहता हूँ उस दिन मेरा गीत तुम्हारी याद लिखेगा।