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संधिकाल का गीत / मोहन अम्बर

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हमारे गाँव घर में इसलिये रहने लगा है तम,
कभी दीपक जलाते हम कभी आंधी बुलाते हम।

समय को स्नेह के बदले हमीं दुष्फल दिया करते,
कि जो कुछ आज करना हो उसी को कल किया करते,
सरल पगडंडियों के साथ ऐसा छल किया करते,
कि जिनसे मंजिलें दुखती उन्हीें को बल दिया करते,
हमारे काफिलों का इसलिये टूटा हुआ है दम,
इधर काँटे हटाते हम उधर काँटे बिछाते हम।

हमारी पैरवी पर जी रही ऐसी बुराई है,
तपस्या त्याग के घर की हँसी जिसने चुराई है,
हमीं ने दर्द को पोषाक दूल्हे की पिन्हाई है,
हमीं ने बेबसी को आज की दुल्हन बनाई है,
हमारी छातियों पर इसलिये बैठा हुआ है गम,
गलत आँसू बहाते हम सही आँसू छुपाते हम।

गले में झूठ के डाली हमीं ने जीत की माला,
हमीं ने ओठ पर सच के लगाया अर्थ का ताला,
हमीं ने मन्दिरों की मूरतों का मुँह किया काला,
हमीं ने मस्जिदों वाली अजानों को बदल डाला,
हमारी प्रार्थना को इसलिये मिलता नहीं है सम,
कभी हाँके लगाते हम कभी गूंगे कहाते हम।