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अनबरसी आसाढ़ी रात / मोहन अम्बर
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ढुलक मेघ-गागरिया धरती प्यासी है।
फसल नहीं तो बंद हो गये पत्थर खेत मचान के,
इसीलिए यह गरम हवा चलती है सीना तान के,
इतने पर भी कोयल का विश्वास कहीं पर बोलता,
मत रो अरी दादुरिया तपन प्रवासी है,
ढुलक मेघ-गागरिया धरती प्यासी है।
रात पूनमी किन्तु धूंधलका ओढ़़े चांद उदास है,
जुगनू समझ रहे कि हमारी दमकन आज प्रकाश है,
ऐसे में विरहिन की तड़पन पर यों बोली बीजुरी,
आ प्रिय के साँवरिया प्रीत रूआँसी है,
ढुलक मेघ-गागरिया धरती प्यासी है।
ताल किनारे सारस जोड़े कल क्या होगा सोचते,
दो मन अपना दर्द घटाने हिल-मिल आँसू पोंछते,
ऐसी अनबरसी आसाढ़ी निष्ठुर मेघिल रात में,
बाज गीत बाँसुरिया आज उदासी है,
ढुलक मेघ-गागरिया धरती प्यासी है।