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अगहन की रात और मैं / मोहन अम्बर

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उजड़ी-उजड़ी गुलमुहरों से झाँक रहा है पूरा चाँद,
ऐसी अगहन रात उजेरी और गीत की आई याद।

धरा-मंच पर नची चँदनियाँ,
दर्शक तारे मगन-मगन,
ढोल बजाती फ़सल ज्वार की,
झाँझ बजाता शरद-पवन,

सोलह-वर्षी लड़कपने से सियार सीटी बजा रहे,
गगन-दूधिया पर चौराहे के दादा जैसा उन्माद,

थके लहू को उगल रहे,
अजगरी मिलों के दरवाजे,
लगा रहे हैं दलाल भोंपू,
स्वस्थ लहू को आवाजें,

अभी पसीने भींगा है श्रम, फुटपाथों से लौट रहा,
सरदी बाँधे है बाँहों में मुट्ठी में बाँधे अवसाद,

अरमानों की बात कह रही,
झोंपड़ियाँ की अंगीठियाँ,
बासी सब्जी तपा रही हैं,
जिन पर फूटी पतीलियाँ,

रूप जहाँ पर कुरूप बन कर पिया प्रतीक्षित बैठा है,
एक आँख में दुखड़ा जिसके एक आँख में है आल्हाद,

आँसू के घर कथा सुन रहे,
अंधे युग के बहरे प्राण,
सचमुच रूढ़ी के शस्त्रों में,
धर्म सभी से तीखा बाण,

शोषण से ले कर्ज़ कथा पर कर सपने के हस्ताक्षर,
धीरज वाला तिलक लगाये पीड़ा बाँट रही परसाद,
ऐसी अगहन रात उजेरी और गीत की आई याद।