आषाढ़ी प्रथम साँझ / मोहन अम्बर
गुल मुहरें फूल र्गइं, गुल मुहरें फूल गईं।
धूल भरे बादल भी ऐसा सुख घोल गए,
चिड़ियों के अनबोले बच्चे तक बोल गए,
शीशम का शीश झुका,
निमियाँ की बाँह रूका,
बौराई भरी उमर पीपल-सी झूल गई,
गुल मुहरें फूल गईं।
मस्ती में खरीदार महँगा ही मोल गए,
मदहोशी व्यापारी झुकता भी तोल गए,
घट-बढ़ का लेन-देन,
चलता यों दिवस-रैन,
लेकिन ख़ुद मजदूरिन मजदूरी भूल गई,
गुल मुहरें फूल गई।
पूरब की तपन मरी दो पल में जादू से,
पश्चिम के नयन हुए भंग पिये साधू से,
प्यासी पर पौध तनी,
माटी ख़ुद गंध बनी,
कोयलिया बच्चों से लड़ने पर तूल गई,
गुल मुहरें फूल गई।
पर्वत का एक पेड़ इस दुख से टूट गया,
सुबह मिली किरण-प्रिया साँझ साथ छूट गया,
ऐसे में दीप जले,
तोतों के झुण्ड चले,
आँधी की सारी ही हरकतें फिजूल गई,
गुल मुहरें फूल गई।