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हे राम ! (दोहे) / ओम निश्चल

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ओला बारिश ले गई गेहूँ के सब रँग
रहा दैव को देखता कृषक बिचारा दँग ।

बीज दूध से थे पगे थी मिठास इकरास
मगर भाग्य को तनिक भी फ़सल न आई रास ।

भीतर-भीतर मच रहा कितना ही कोहराम
मंत्री क्या जाने, भला, जीवन का संग्राम ।

आधी फ़सलें चर गए गायों के सब झुण्ड
आधी शव-सी दिख रहीं जैसे हों नरमुण्ड ।

बचा रहा है फ़सल को होकर वह निष्काम
उधर विधायक बिक रहे कितने ऊँचे दाम ।

देखा, फ़सलें कर रहीं कैसा तो विश्राम !
दारुण दुख में फूटता मुँह से बस 'हे राम !!'