प्रेम कभी बहुत सुथरा नहीं होता / अनिमेष मुखर्जी
यूँ तो रंगीन मिज़ाजी कोई रंगीन नहीं होती
मगर असल इश्क़ बड़ा रंगीन होता है
और जैसा कि हम जानते हैं
सभी रंग सिर्फ़ तीन प्राथमिक रंगों से मिलकर बनते हैं
तो हर मुकम्मल आशिक़ इन्हीं तीन रंगों का बना होता है
या यूँ कहें कि हर संतुलित प्रेम में
इन्हीं तीन प्राथमिक रंगों की तलाश होती हैं।
एक, सुकून से लड़ते रहने वाला सुर्ख लाल
एक, बेपर्दा रूह तक फैला आकाश-सा नीला
एक, बाँधने, निहारने और दुलारने वाला माटी-सा पीला
मगर फिर ख़याल आता है
कि संतुलित है तो प्रेम कैसा
नामुश्किल है तो प्रेम कैसा
बहुत सुथरा-सा है तो प्रेम कैसा
कमज़र्फ और कमज़ोर न सही,
इश्क़ आख़िर में है तो एक ख़ता ही।
आप सौ बार करें या एक बार
ख़ताएँ कभी इंद्रधनुषी नहीं होतीं।
प्रिज़्म के विचलन से बनने वाले स्पेक्ट्रम
सी रूहानी नहीं होतीं।
असल ज़िन्दगी में तो हर आशिक़
इन्हीं तीन प्राथमिक रंगों से बना है
और कमज़र्फ या कमज़ोर न सही
प्रेम कभी बहुत सुथरा नहीं होता।