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हर चेहरा है शकुनी सरीखा / श्याम निर्मम

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अक्सर ही
ऐसा क्यों होता
जीते सपने बहुत बुरे आते हैं
डर कर नींद उचट जाती है !

जिधर देखता भाग रहे सब
चारों तरफ आग फैली है
सागर में तूफ़ान उठा है
हर सूरत ही मटमैली है

अक्सर ही
ऐसा क्यों जाना
निर्बल सँभल-सँभल जाते हैं
क्षमता रपट -रपट जाती है !

हर चेहरा है शकुनी सरीखा
चौपड़ पर गोटिया सजी हैं
रणभेरी के शंख गूँजते
मौन मुरलिया नहीं बजे हैं

अक्सर ही
ऐसा क्यों देखा
जीते हुए हार जाते हैं
बाजी उलट-पलट जाती है !
 
प्रतिभाएँ हारी-सी बैठीं
अपराधी माला पहने हैं
कुछ को सुख की मिली विरासत
हम को दुख अपार सहने हैं

अक्सर ही
ऐसा क्यों समझे
हर जीवन की कुछ उम्मीदें
बन कर सांस सिमट जाती है !