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एक नाकारे की डायरी से / अरविन्द श्रीवास्तव
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मुझे मेरे ज्ञानी मित्रों ने दरकिनार कर दिया है
उन्हें लगता है कि
मैं अष्टभुजा शुक्ल की कविताओं का नक़ल करता हूँ
कि मैं धरती से प्रेम नहीं
प्रेम का दिखावा करता हूँ
और करता हूँ अपने दर्द का बाजारीकरण
बड़ी चालाकी से
ख़त्म होता जा रहा है मेरा प्रतिरोध
मेरी मेधा मंद पड़ती जा रही है
मैं भोथरे बिम्बों को चमकाता मात्र हूँ
मेरी कविताओं में
शब्दों ने साथ छोड़ दिया है मेरा
मैं नाकारा हूँ
बज़्म से बार-बार खदेड़े गए शायर की तरह
जंग लगे साइकिल और
संदूक में नजरबन्द
पुराने कोट की तरह !