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माय (कविता) / अनिरुद्ध प्रसाद विमल

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कŸोॅ सुन्दर छै हमरोॅ माय
गैय्योॅ से सीधी हमरोॅ माय।
भंसा-भात बनावै छै
कखनूं नै औकतावै छै,
चूल्हा-चौकी-गोबर काठी
गय्यो के रोज़ खिलावै छै।
झटपट काम समेटी सब ठोॅ
साँझे राज पढ़ावै माय
कŸोॅ सुन्दर हमरोॅ माय।

माय लुग रहतैं कोनोॅ नै चिंता
अजबेॅ होय छै उनकोॅ ममता,
रोज सुनाबै किस्सा हमरा
लव-कुश-राम कखनूं सीता।
खोजी खिस्सा वेद्-पुराणोॅ के
सब शिक्षा सार बतावै माय
कŸोॅ सुन्दर हमरोॅ माय।

गलती पर फटकारै माय
रूसला पर पुचकारै माय,
बाबू जब गुस्सावै कहियोॅ
अँचरा तर झांपी राखै माय।
माय के गोदी स्वर्ग बसै छै
माय रो चुम्मा लाय मिठाय
कŸोॅ सुन्दर हमरोॅ माय।