पर / अहिल्या मिश्र
तुझे अब तो
पर लग गए हैं।
परों के सहारे
उन्मुक्त आकाश में
विचरण करने लगी हो
सभी खग मंडली
तेरे संगी साथी बन गए हैं।
रवि का गोल टीका
तेरा ललाट चूम रहा है।
वही मैं रेत के अंतरिक्ष में
धँसती चली जा रही हूँ
हम अब क्षितिज होते जा रहे हैं।
जिनका मिलन दूर खड़े होने
पर तो दिखता है।
किंतु पास पहुँचकर
दोनों अलग खड़े होते हैं।
और करीब आने की लालसा में
दूरियाँ बढ़ती ही जा रही है।
कभी मंगल के अंगारे-सी चकमक बन
कभी चाँद की शीतल गति से
कभी हवाओं की डोली पर सवार हो
तुम्हें छूना / महसूसना / पाना
एक जटिल-सा स्वप्न बुनता है।
किंतु सत्य के धरातल पर
तपते बालू पर पड़ी बूंद सी
या फिर कर्पूर की पुरिया सी
हवा में ही बिखर जाती है।
फिर सहेज लेती हूँ
एक नए भ्रम जाल को
लगा लेती हूँ परियों के पर
जिसके काल्पनिक एहसास से ही
झूलने लगती हूँ हिंडोल पर।
फिर
एकाएक इस काल्पनिक झूठ का
एहसास होता है
और जिगर का लहू
आंसू बन फूट पड़ता है।
तब एक बार फिर
उतर आती हूँ।
अपनी उसी छोटी-सी ज़मीन पर।