बच्चा और भेड़िया / अहिल्या मिश्र
कल हीं मैंने
अपने नन्हें बेटे की आँखों में
झाँक कर देखा है
वहाँ सुनहरे / पीले / नीले
लाल / उजले / काले / हरे
गुलाबी गुलाब खिले थे।
सुबह का सूरज निकल रहा था
और ख़ुशी का सावन बरस रहा था।
जिसमें सतरंगी सपनों के
रंग-बिरंगी इंद्रधनुष बने थे।
अपनी बेपनाह मासूमियत लिए
अब वह बड़ा होने लगा है।
अचानक एक दिन उसने
एक भेड़िए को देखा
उसके मासूम आँखों में डर उबल पड़ा।
गुलाबों की जगह कांटो ने ले ली
भेड़िया धीरे-धीरे उसकी ओर बढ़ने लगा।
उसने
सबसे पहले उसकी मासूमियत को
डर में समा कर निगल लिया
बालक की
आँखों के काँटे बढ़कर
पलकों में चुभने लगे
डर दर्द बन गया।
भेड़िया करीब आया और करीब आया।
बच्चा डर और दर्द से
जोर से चिल्लाया आ-आ-आ-
काम के बोझ के मारे
किसी बड़े ने चिल्लाहट पर
ध्यान नहीं धरा
चिल्लाहट को शरारत समझ
सब चुप अनजान बने रहे।
भेड़िया और-और-और करीब आया
बच्चा ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाया
किसी के कान पर जूँ नहीं रेंगी
भेड़िया
अब आमने-सामने हुआ
बच्चा अब चुप हो गया
एकटक भेड़िए को देखने लगा
उसकी दाँतों को गिनने लगा
गिनने लगा-एक, दो, तीन...
डर एकदम कम हुआ।
भेड़िया अब तो...
बिल्कुल करीब आ पहुँचा
बच्चा मुस्कुराने लगा
मेमना बढ़ने लगा
बड़ा हुआ।
बच्चे की आँखों में युवा रश्मि चमक उठी।
धीमे-धीमे भेड़िए का भेड़ियापन
बच्चे की आँखों में उतर आया
अब वह बड़ा हो गया
उसने भेड़िए की आँखों में आँखें डाल दीं
फिर उसे अब भेड़िए का डर कैसा?