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व्यापार / अहिल्या मिश्र

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जीवन के खुरदरे रास्ते पर
चलते जाना आसाँ नहीं दोस्त!
कहीं साँस बिकती है कहीं लाश
व्यापारी हैं जो जग में
ख़रीदते हैं हर पल पैसों के बल
ज़मीर क्या चीज़ है?
आत्मा भी बेची ख़रीदी जाती है।

ईश्वर का लगता है मोल यहाँ
क़ीमती भोग व रत्न-हारों से
बिकते इंसान चापलूस के बाज़ारों से
नोट के बदलते इशारों से।

अरे! तुम निरे मूर्ख हो
अहम् के कोरे भाव
भला क्या दूँ मैं इसका दाम?
मेरे पास नहीं ये कौड़ी काम की
बेचो जाकर अपने समाज को
जिसकी हस्ती नंगी-भूखी
ख़रीदे वह भूख के इस माल को।
आज इस बाज़ार में
बेच रही हूँ-झूठ
मक्कारी / लालच / धोखाधड़ी / अस्मत /
मस्क़ाबाज़ी और बड़े नामों को।
इस रूपहली चमक से ज़िंदगी में
बनाऊँगी सुनहरे मकानों को।

घर बसाऊँगी धूर्तता / ग़द्दारी / ठगी
डाकाजनी के सुंदर कामों को।
बीच बिठाकर मणि-मुक्ता
रत्न जड़ित हीरे-जवाहरात
ऊँचे सिंहासन के पैमानों को।
स्वर्ण कलश पर
गज-मुक्ता के दीप जलाकर
बनाए रखूँगी लक्ष्मी के आनों को।

भोग विविध व्यवहार का
आरती इज़्ज़त की धार का
पुष्पांजलि नम्र मुख अभिसार का
माल्यार्पण फ़रेब के पुष्पहार का
चंदन झूठ पगे अत्याचार का
आचमन मानवता के पीर का
उपहार, दया, धर्म अपमान का
दक्षिणा दूँगी सत्य, अहिंसा के मान का
पूजा हुई सम्पन्न मेरे हमदम
मुझसे अब न पूछो कोई प्रश्न
यही है जीवन का व्यापार दोस्तों।