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समर्पण / मोहन अम्बर

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दुनिया वालों तुम क्या दोगे मर जाने पर तर्पण मुझको,
ईश्वर भी ईर्ष्या कर बैठे, ऐसा मिला समर्पण मुझको।
जेठ दुपहरी का बादल था, एक नदी ने अधर दे दिए,
मानों भूमि विहीन कृषक को अनुदानों में नगर दे दिए,
अब मैं ऐसा बौराया हूँ बौरायापन बना साधना,
प्यास कहीं भी छुप कर बैठे दिख जाता वह कण-कण मुझको।
ईश्वर भी ईर्ष्या कर बैठे ऐसा मिला समर्पण मुझको।
मेरे कर की भाग्य लकीरें युग ने बहुत ग़लत बतलाई,
लेकिन मेरी कर्मठता को झुक कर कहती है कठिनाई,
सेवा से बढ़ कोई पूजा किसी ग्रंथ में नहीं लिखी है,
उस सेवा के लिए विधाता दे बैठे हैं क्षण-क्षण मुझको।
ईश्वर भी ईर्ष्या कर बैठे ऐसा मिला समर्पण मुझको।
इच्छाओं ने आ-आ करके संयम वाला द्वार बजाया,
लेकिन मैंने कभी स्वप्न को कच्ची निंदिया नहीं जगाया,
दुख की पूजा करते-करते तप इस सीमा तक आ पहुँचा,
डिगा नहीं पाता है अब तो कोई भी आकर्षण मुझको,
दुनिया वालों तुम क्या दोगे मर जाने पर तर्पण मुझको।
ईश्वर भी ईर्ष्या कर बैठे ऐसा मिला समर्पण मुझको।