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पश्चात्ताप / मोहन अम्बर

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मन रूको और सोचो घड़ी भर
सांस रूकने लगी है सर्जन की
मैं ग़लत गाँव में आ गया हूँ॥
प्यास को धीर देते सभी हैं

नीर कोई पिलाता नहीं है
मंजिलों से शिकायत सभी को
पाँव कोई चलाता नहीं है
बात पूछो न वातावरण की

प्यार की आँख खुलती नहीं है
स्वार्थ की छाँव में आ गया हूँ
मैं ग़लत गाँव में आ गया हूँ॥
कण्ठ पर बोझ पर्वत सरीखा

बात करना कठिन हो रहा है
और कहता है मुझसे अँधेरा
कि बोलूँ कि दिन हो रहा है
फूँकते-फूँकते थक गया हूँ

बाँसुरी बोलती ही नहीं है
दर्द के पाँव में आ गया हूँ।
मैं ग़लत गाँव में आ गया हूँ॥

लोग जो भी किनारे खड़े हैं
ज्वार को देखने आ गये हैं
लग रहा सत्य को मार करके
सिंधु में फेंकने आ गये हैं

डाँड जड़ हैं, करें तो करें क्या
केवटों की बँधी मुट्ठियाँ हैं
डूबती नाँव में आ गया हूँ।
मैं ग़लत गाँव में आ गया हूँ॥