हाँ रे थक गया हूँ / रामकृपाल गुप्ता
नींद नहीं आती है
रात चली जातीहै
लेटा हूँ आँखों की
जल रही बाती है
बारह बजे हैं
रात गहरायी है
सोया है चाँद और
बदली ने धुली-धुली
चादर उढ़ायी है
मीठी बयार भर दुलार
बह आती है
थपकी भर लोरी सुनाती है
" सो जारे सोजा सपनों में खोंजा
सपनों में खो जा
सो जारे सोजा सपनों में खोंजा"
सपनों में खो जा"
सपने
आते जो आकर रुलाते जो
कितनी अनचाही
कहानी दुहराते जो
अँधियारी खाइयाँ
धुँधली परछाइयाँ
जैसे चुडै़ल और भूत
अंधड़ तूफानऔर त्रास
लूट-पाट जाते हैं
मन का चैन
छाती पर पाथर की
चाकी कूट जाते हैं
नहीं नहीं
सपनों से दूरमैं जगा करूँ
छाती मेंआग लिये
निशि दिन सुलगा करूँ
मुझको स्वीकार यह।
दिनभर पसीना बहाया है
नालायक पेट की खातिर
रोटी की दौलत कमाया है
दुखती है नस नस
अकड़ी हड्डी-हड्डी
करती मनुहार
"अरे सो लो न थोडा ही!"
आखिर सुबह फिर तो मरना है
पेट का गढा फिर तो भरना है
कैसे पर पलकें झपकाऊँ मैं
भय की अनजानी
घटा-सी घिरआती है
नींद नहीं आती है
रात चली जाती है।