भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
गीत बरसाएंगे हम / रामकृपाल गुप्ता
Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:21, 3 अप्रैल 2021 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रामकृपाल गुप्ता |अनुवादक= |संग्रह...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
जीते-जीते अब तो जीने का सलीक़ा आ गया
वरना ढलता दिन पसरती रात डर जाते थे हम।
माना गुजरे वक़्त ने तो, दिये थे गहरे जखम,
ये उन्हीं जख्मो का दम है हो गये बेखौफ हम।
क्या हुआ जो मौत से दो चार होंगे एक दिन,
जिन्दगी जब तक चलेगी, नूर बन छाएँगे हम।
जो मैं रहा तो खुदा रहा, ख़ुद को कभी भूला नहीं,
नाखुदा मिलते गये, जब भी था सागर बेरहम।
सच तो ये कुछ इस तरह, ।चलता रहा अपना सफ़र
कैसे हुआ जो भी हुआ, कुछ भी बता सकते न हम
जीते जीते अब तो जीने का सलीक़ा आ गया,
वरना बढ़ती उम्र सहमे, सहम के रहते थे हम
क्या हुआ जो मौत से दो चार होंगे एक दिन,
जिंदगी ज़ब तक सलामत, गीत बरसाएंगे हम