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दीप बनूं आभा फैलाऊं / जतिंदर शारदा
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दीप बनूं आभा फैलाऊँ
सुमन बनूं मधुवन महकाऊँ
एक मार्ग पकड़ूं जीवन में
सदा उसी पर चलता जाऊँ
जितनी रहे ज़रूरत अपनी
उससे अधिक न मन भटकाऊँ
कार्य अधूरा रह जाएगा
यही सोच कर सो न पाऊँ
जीवन को समझूं इक मेला
मैं भी जीवन पर्व मनाऊँ
कीचड़ में जन्मा हूँ लेकिन
नीरज की सुरभि बिखराऊँ
प्रभु कृपा को महत्ती जानूं
पुरुषार्थ को बौना पाऊँ
भावों को यदि शब्द मिलें तो
मैं भी इक कविता बन जाऊँ
बीज ने मुझे बनाया बरगद
बरगद बन बीज उपजाऊँ
बन जाओ तुम मेरे केवट
मैं भी भवसागर तर जाऊँ
सरिता बन उतरूं सागर में
फिर मैं भी सागर कहलाऊँ
भाग्य की बातें भाग्यहीन की
पुरुष हूँ मैं पौरुष दिखलाऊँ
चरण शरण है मेरा आश्रय
चरण शरण तज कहाँ मैं जाऊँ