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हस्ताक्षर हैं पिता / लता अग्रवाल

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चली आती थी
खुशियाँ
शाम ढले।
नन्हें-नन्हें
उपहारों में
संग पिता के
घर का
उत्सव थे पिता।

संघर्षों के
आसमान से
बरसती बिजलियों से
लेते लोहा
ऐसी अभेद्य
दीवार थे पिता।

चिंताओं के कुहरे
से पार ले जाते
अनिश्चय के
भंवर में
हिचकोले लेती
नाव के कुशल
पतवार थे पिता।

चहकते रहते थे रिश्ते
महकती थी उनसे
प्रेम की खुशबू
सम्बंधों के लिये
ऐसी कुनकुनी
धूप थे पिता।

जिन्दगी की
कड़ी धूप में भी
नहला देते
अपने स्नेह की
छाया से
ऐसे विशाल
बरगद थे पिता।

घर-भर को नया
अर्थ देते
जिन्दगी के
रंगमंच के
अहम
किरदार थे पिता।

हर परीक्षा में
हमारी
सफलता-असफलता
की रिपोर्ट कार्ड के
महत्त्वपूर्ण
हस्ताक्षर थे पिता।

आज
उत्सव के अभाव में
गहरा सन्नाटा है
घर में
चहुं ओर
तड़कती हैं बिजलियाँ
जीवन नैया
फंसी है
भंवर में
कुनकुनी धूप के
अभाव में
दीमक खा गई
रिश्तों को
एक अह्म
किरदार के बिना
सूना है
जीवन का रंगमंच
सफलताओं-असफल्ताओं के
प्रमाणपत्र
बेमानी है
एक अदद हस्ताक्षर के बिना।