चाँद तुम आना / लता अग्रवाल
चाँद!
तुम आना कभी
हम तुम मिलकर
सुखद स्मृतियों की पतंगे उड़ायेंगे
कि उम्मीदों के दरिया में
कागज की कश्ती चलाएंगे।
चाँद!
तुम फिर आना
अभी मैं उलझी हुई हूँ
वक्त की आँधियों से
अपने हिस्से की रौशनी बचाने में
फुरसत में कभी गीत ख़ुशी के गायेंगे।
चाँद!
आना फिर कभी
हम छीनकर अंधेरों से रौशनी
शोक गीतों का उत्सव मनाएंगे
ताकि बची रहे रौशनी आती पीढ़ी के लिए
मिलकर हम तुम एक सुखद इतिहास बनायेंगे।
चाँद!
तुम आना ज़रूर
जैसे आती है नींद दबे पाँव
रात घिरने के साथ
लौट आते हैं पक्षी ख़ुद ब खुद
नीड़ के पास
ढलते सूरज के साथ
जैसे लौट आती है
प्रेयसी के चेहरे की मुस्कान
प्रियतम की आस में।
चाँद!
मैं इंतज़ार में तुम्हारे
संजोए रखूँगी दीप स्मृतियों के
भावनाओं का गुलदान सजाऊँगी
चाँदनी पर तुम्हारी
उजली रजनीगंधा के पुष्प भेंट चढाऊँगी।
चाँद!
तुम आना ज़रूर
मैं निहारूंगी रास्ता तुम्हारा
कल्पनाओं की भरकर उड़ान
जिन्दगी के पथ पर हम
रेशमी पंखुड़ियों का गलीचा बिछायेंगे।