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ऐंगना ऐलै धूप रे / कुमार संभव

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ऐंगना ऐलै धूप रे।

फूलोॅ से सजलोॅ छै धरती
तनियो टा काहीं नै परती,
रंग बिरंगा फसलोॅ से भरलोॅ
लागै छै कत्तै सुन्दर खेती,
खेत-खेत धानोॅ से भरलोॅ
कुछ पकलोॅ, कुछ अधपकलोॅ,
अगहन सीती सें दबलोॅ-झुकलोॅ
आरी पर छै गिरलोॅ-गिरलोॅ,
शरदोॅ के रूप अनूप रे
ऐंगना ऐलै धूप रे।

कखनूँ ऐंगना में पसरै छै
कखनूँ ओसरा पर ससरै छै,
कखनूँ मोखा लागी हाँसै
कखनूँ द्वारी पर पझड़ै छै,
कखनूँ जूही पर, कखनूँ चमेली
नाचै छै, खेलै छै ई अलबेली,
कद्दू लत के छूवी दौड़ै
सच्चे लागै छै कत्तेॅ भोली,
बुझै नै खंदक-खाई कूप रे
ऐंगना ऐलै धूप रे।

प्यारोॅ मिठ्ठो धूप अगहन रोॅ
पूस-माघ के अजगुत कनकन रोॅ,
सरदी, जूड़ी, ताप भले कत्तोॅ छौं
शरद धूप दवा छै ठिठुरन रोॅ,
नदी, पहाड़, पोखर, पाथर सगरो
शरद धूप एक्के रं छिरियाबै,
सभ्भे लेली एक्के जैसनौं
ई भेद बराबर के बतलाबै,
सुख बाँटै भरि-भरि सूप रे
ऐंगना ऐलै धूप रे।