भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आदमी का ज़हर / शंभुनाथ सिंह

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:32, 14 अप्रैल 2021 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शंभुनाथ सिंह |अनुवादक= |संग्रह= }} {{K...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

एक जलता शहर
हो गई ज़िन्दगी !
आग का गुलमोहर
हो गई ज़िन्दगी !

हर तरफ हैं अन्धेरी
सुरंगें यहाँ
है भटकती हुई
सिर्फ़ ! रूहें यहाँ
जादुई तलघरों से
गुज़रती हुई

है तिलिस्मी सफ़र
हो गई ज़िन्दगी।

भागकर जाएँ भी
तो कहाँ जाएँ हम
कब तलक यह मिथक
और दुहराएँ हम
है दवा ही न जिसकी
अभी तक बनी

आदमी का ज़हर
हो गई ज़िन्दगी !

जंगलों में सुखी
और ख़ुशहाल था
आदमी नग्न था
पर न कंगाल था
बदबुओं का न
अहसास अब रह गया

सभ्यता का गटर
हो गई ज़िन्दगी !

चान्द-तारे सभी
आज झूठे हुए
हर तरफ घिर उठे
हैं ज़हर के धुएँ
आँख की रोशनी को
बुझाती हुई

रोशनी की लहर
हो गई ज़िन्दगी